प्रयागराज।देश की आजादी के लिए अपनी जान न्यौछावर कर बलिदान हुए शहीदों की निशानियों और उनके दस्तावेज का महत्व सिर्फ ऐतिहासिक नहीं है,बल्कि ये दस्तावेज सांस्कृतिक,भावनात्मक और राष्ट्रीय चेतना से जुड़े हुए हैं।संगम नगरी में क्षेत्रीय अभिलेखागार की ऐतिहासिक इमारत में 4012 अमर शहीदों की पूरी सूची और उनका लेखा जोखा है।
इनको 1857 के विद्रोह में फांसी में चढ़ा दिया गया या जेल में बंद कर तिल-तिल मरने के लिए विवश कर दिया गया
इसमें कई तो ऐसे भी हैं,जिनका नाम भी नई पीढ़ी शायद ही जानती हो।आज देश के अलग अलग हिस्सों के 1820 रिसर्च स्कॉलर शहीदों के इन दुर्लभ दस्तावेजों पर शोध कर रहे हैं। देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम यानी 1857 के गदर में संगम नगरी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और रणनीतिक थी। संगम नगरी उस समय ब्रिटिश प्रशासन,सेना और परिवहन नेटवर्क के लिए एक अहम केंद्र थी।इसी कारण यहां का विद्रोह पूरे उत्तर भारत में गहरी गूंज पैदा कर गया।
इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि गंगा और यमुना के संगम पर स्थित इलाहाबाद ब्रिटिश शासन के लिए एक सैन्य और प्रशासनिक मुख्यालय था।यहां बड़ा किला (इलाहाबाद किला), सरकारी खजाना और शस्त्रागार था, जिसे अंग्रेज बहुत सुरक्षित मानते थे।कलकत्ता (ब्रिटिश राजधानी) से दिल्ली जाने वाली डाक और परिवहन मार्ग का यह अहम पड़ाव था।यही वजह है कि मई-जून 1857 में मेरठ और दिल्ली में विद्रोह भड़कने के बाद इसकी आंच इलाहाबाद भी पहुंची। 6 जून 1857 को इलाहाबाद में स्थित नेटिव इन्फैंट्री की 6वीं रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेज अफसरों पर हमला किया,सरकारी खजाना लूटा और हथियार कब्ज़े में लिए।
प्रो.योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि विद्रोही सिपाहियों और ग्रामीण क्रांतिकारियों ने कई ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारों को मार दिया।अंग्रेजों ने बदले में भारी दमन किया,हजारों ग्रामीणों और विद्रोहियों को फांसी दी,गोलियों और तोपों से उड़ाया गया।इनमें सलामत अली,नूर खान,स्वाल,रघुवर,रहीम बक्श,सुदीन,सैफुल्लाह,लाल चंद्र,मुन्ना खान,मुनव्वर,मौला बक्श,मूंगु लोदी और नूरुद्दीन शामिल हैं।एक महिला कुसमा देवी का भी इसमें नाम है,इसमें ज्यादातर को चौक मोहल्ले में नीम के पेड़ पर फांसी दी गई थी।इन सभी घटनाओं के एक एक दस्तावेज संगम नगरी के क्षेत्रीय अभिलेखागार की ऐतिहासिक इमारत में आज भी संरक्षित हैं।
प्रो.योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि कौशाम्बी के महंगाव के रहने वाले मौलवी लियाकत अली ने 1857 के गदर में इलाहाबाद और आसपास के क्षेत्रों में विद्रोह का नेतृत्व किया। लियाकत ने खुद को इलाहाबाद का स्वतंत्र शासक घोषित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रशासनिक तंत्र खड़ा किया।लियाकत ने संगम क्षेत्र और किले को अंग्रेजों से छुड़ाने की कोशिश की,लेकिन अंग्रेजी सेना की भारी ताकत और तोपों के सामने लंबे समय तक टिकना संभव नहीं हुआ।इलाहाबाद किले और पूरे शहर में मार्शल लॉ लागू किया गया।ब्रिटिश सेनाओं ने कानपुर और बनारस से अतिरिक्त टुकड़ियां बुलाकर इलाहाबाद में विद्रोह कुचल दिया।इस दमन की कार्यवाही में एक दो नहीं बल्कि 4 हजार से अधिक स्थानीय लोगों को या तो अंग्रेजों ने फांसी दे दी या जेल की दीवारों में कैद करके उनका उत्पीड़न कर उन्हें शहीद कर दिया।
प्रो.योगेश्वर तिवारी ने बताया कि क्षेत्रीय अभिलेखागार में इस गदर में जान देने वाले 4012 लोगों की पूरी सूची और उनका लेखा जोखा है।ये निशानियां शहीदों के साहस और बलिदान की याद ही नहीं दिलातीं,बल्कि इन्हें देखकर नागरिकों, विशेषकर युवाओं में देशभक्ति और कर्तव्य भावना जागृत होती है, ये निशानियां हमारे स्वतंत्रता संग्राम की सांस्कृतिक पहचान हैं,इनका संरक्षण हमारी विरासत को बचाने और आने वाली पीढ़ियों को सौंपने के लिए आवश्यक है।
क्षेत्रीय अभिलेखागार के प्राविधिक सहायक इतिहासकार राकेश कुमार वर्मा बताते हैं कि शहीदों के मूल दस्तावेज उस समय की घटनाओं का प्रत्यक्ष साक्ष्य होते हैं, ये इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए प्रमाणिक स्रोत होते हैं,जिससे आजादी की लड़ाई के वास्तविक तथ्यों को समझा और सही तरीके से लिखा जा सके। राकेश ने कहा कि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के छात्र एवं प्रोफेसर इन दस्तावेजों का अध्ययन कर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हैं।इस अभिलेखागार में इस समय 1820 शोधार्थी शहीदों की शहादत के विभिन्न पहलुओं पर शोध कर रहे हैं।